जितिया व्रत कथा, जीवित्पुत्रिका व्रत कथा, विधि और महत्व

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जितिया व्रत कथा, जीवित्पुत्रिका व्रत कथा, विधि और महत्व: भगवान शंकर जी ने बताया, जीवितपुत्रिका व्रत (जितिया व्रत) का महत्व, व्रत विधि और व्रत संपूर्ण कथा। अंत तक जरूर पढ़ें:-

जितिया व्रत क्या है:-

जितिया व्रत जिसे जीवित्पुत्रिका व्रत या कई स्थानों पर जीउतिया व्रत भी कहा जाता है। यह लगभग 24 घंटे का निर्जला व्रत होता है। यह व्रत जीवित संतान के लिए रखा जाने वाला व्रत है। इस व्रत को वो सभी भाग्यवान और सौभाग्यवती स्त्रियां रखती हैं। जिनकी संताने होती हैं। वह अपने संतान के स्वस्थ जीवन और लंबी आयु के लिए इस व्रत को रखती है। इसके अलावा जिन स्त्रियों की संताने नहीं होती वह स्त्रियां भी पुत्र की कामना के लिए भी इस व्रत को रखती हैं। यह निर्जला व्रत आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रखा जाता है। और मनोकामना यह रहती है कि उनकी संतान दीर्घायु, स्वस्थ और संपन्न रहे।

जिउतिया व्रत करने की विधि :-

जितिया व्रत के दिन चक्की में पिसे हुए गेहूं के आटे और गुड़ का पकवान शुद्ध घी में बनाया जाता है। सभी माताए अपने पुत्र के नाम का एक बंधन अपने गले में पहनती हैं। कई स्थानों पर जिस स्त्री के एक से ज्यादा पुत्र होते हैं उतने छोटे-छोटे सोने के लॉकेट उस बंधन में डालकर पहनती हैं। इस व्रत की पूजा भगवान शंकर को प्रिय प्रदोषकाल में ही करनी चाहिए और इस व्रत का पारण अगले दिन निर्धारित समय पर किया जाता है।

जितिया (जीवित्पुत्रिका) व्रत का महत्व:-

एक बार की बात है माता पार्वती ने एक स्थान पर कई स्त्रियों को विलाप करते हुए देखा, तो भगवान शंकर से उसका कारण पूछा। भगवान शंकर ने बताया कि इन स्त्रियों के पुत्रों का निधन हो गया है इसी कारण यह स्त्रियां विलाप कर रही हैं। माता पार्वती जी अत्यंत दुखी हुई और भगवान शंकर जी से कहा हे नाथ एक माता के लिए इससे अधिक हृदय विदारक और कष्टकारी बात क्या हो सकती है कि उसके सामने ही उसके संतानों की मृत्यु हो जाए। इससे मुक्ति का कोई तो मार्ग होगा कृपया बताएं। 

इस पर भगवान भोलेनाथ ने कहा, हे देवी विधाता के द्वारा जो भी रचित है, उसमें किसी भी प्रकार की हेर फेर नहीं हो सकता। किंतु अगर माताएं चाहे तो जीमूतवाहन की पूजा करके अपने संतान पर आए हुए प्राणघाती संकटों और कष्टों को टाल सकती हैं। भगवान शंकर ने कहा जो भी माताएं आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जीमूतवाहन की पूजा विधि-विधान और सच्चे मन से करेंगी, तो उनकी संतान पर आए हुए सभी संकटों का नाश होगा। भगवान भोलेनाथ ने माता पार्वती जी के अनुरोध को स्वीकार करते हुए उन मरे हुए बालकों को फिर से जीवित कर दिया। इसी कारण से ही इसे जीवित्पुत्रिका व्रत कहा जाता है।

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जीवितपुत्रिका व्रत की पूरी कथा:-

गंधर्वों के जो राजकुमार थे, उनका नाम जीमूतवाहन था। जीमूतवाहन बड़े ही परोपकारी और उदार व्यक्ति थे। जीमूतवाहन के पिता जब वृद्ध हुए तो उन्होंने वानप्रस्थ आश्रम में जाने की बात कही और राजकुमार को राजसिंहासन पर बैठाकर वानप्रस्थ आश्रम को प्रस्थान कर गए। कुछ समय बीतने के बाद जीमूतवाहन का मन राज-पाठ में नहीं लगा और उन्होंने अपने राज्य का सारा भार अपने भाइयों को सौंप कर स्वयं भी वन में अपने पिता की सेवा करने के लिए चले गए। 

वन में रहने के दौरान जीमूतवाहन की भेंट मलयवती नाम की एक राजकन्या से हुई और धीरे-धीरे दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन की बात है जब जीमूतवाहन वन में भ्रमण करते हुए काफी दूर निकल गए तभी एक वृद्धा उन्हें विलाप करते हुए दिखाई दी। पूछे जाने पर उस वृद्धा ने रोते हुए बताया कि मैं नागवंश की स्त्री हूं और मेरा एक ही पुत्र है। पक्षियों के राजा गरुड़ के क्रोध से मुक्ति दिलाने हेतु नागों ने एक व्यवस्था की है जिसमें वे गरूड को प्रतिदिन भक्षण करने हेतु एक युवा नाग को सौंपते हैं। 

आज के दिन मेरे पुत्र शंखचूड को सौंपने का दिन है। आज मेरे पुत्र के जीवन पर बहुत ही बड़ा संकट है, और थोड़ी देर में मेरा पुत्र मारा जाएगा और मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख और क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र इस संसार में न रहे। जीमूतवाहन को यह सुनकर बहुत ही दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को कहा कि तुम डरो मत, तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा मैं करूंगा। 

आज तुम्हारे पुत्र के स्थान पर मैं स्वयं अपने आपको लाल कपड़े में लपेटकर वध्य-शिला पर लेटूंगा। जिससे गरुड़ मुझे खा जायेंगे और तुम्हारा पुत्र बच जाएगा। इतना कहते हुए जीमूतवाहन ने वृद्धा के पुत्र शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा को ले लिया और उस कपड़े को लपेटकर गरुड़राज को बलि देने वाली वध्य-शिला पर लेट गए। समय  होने पर गरुड़ बड़े वेग से आए और वो लाल कपड़े में ढंके हुए जीमूतवाहन को अपने पंजे में दबोचकर पहाड़ के एक शिखर पर जाकर बैठ गए।

बैठने के बाद गरूड़ ने अपनी कठोर चोंच से प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का एक बड़ा हिस्सा नोच लिया। इस पीड़ा से जीमूतवाहन दर्द से कराहने लगे और उनकी आंखों से आंसू बह निकला। गरुड़ राज ने अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर बड़े आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि ऐसा पहले कभी भी नही हुआ था। गरुड़ राज ने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। तब जीमूतवाहन ने पूरी कहानी सुनाई कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा करने के लिए वह अपने प्राण देने को तैयार हो गए और गरुड़ से कहा कि आप मुझे खाकर अपनी भूख शांत करें।

गरुड़ राज ने उनकी बहादुरी व दूसरे की प्राण की रक्षा के लिए स्वयं को बलिदान करने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। फिर उन्हें स्वयं पर ही पछतावा होने लगा। वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं का बलिदान दे रहा है और एक मैं हूं जो देवताओं के संरक्षण में हूं किंतू फिर भी दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं। फिर उन्होंने तत्काल जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया। गरूड़ राज ने कहा कि हे उत्तम मनुष्य मैं तुम्हारी बलिदान और त्याग की भावना से बहुत ही प्रसन्न हूं। मैंने तुम्हारे शरीर पर जो भी घाव दिए हैं उसे ठीक कर देता हूं। 

तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मांगो जो भी मुझसे वरदान चाहते हो। फिर राजा जीमूतवाहन ने कहा कि हे गरुड़ देव आप तो सर्वसमर्थ हैं। यदि आप वास्तव में प्रसन्न हैं, और मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो आप सर्पों (सांपो) को अपना आहार बनाना छोड़ दें। अभी तक आपने जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान कर दें। फिर गरुड़देव ने सबको जीवनदान दे दिया और अब नागों की बलि नही लेंगे इसका वरदान भी दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से पूरे नाग-जाति की रक्षा हुई। 

गरूड़ ने कहा- राजन तुम्हारी जैसी इच्छा होगी वैसा ही होगा। हे राजा! जो भी स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा को सुनेगी और विधिपूर्वक श्रृद्धा से व्रत का पालन करेगी उसकी को संतान मृत्यु का भय नहीं होगा और उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी।

उसी समय से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हुई। यह पूरी कथा कैलाश पर्वत पर भगवान भोलेनाथ ने माता पार्वती जी को सुनाई थी। जीवित पुत्रिका के दिन भगवान गणेश, माता पार्वती और शंकर जी की पूजा एवं ध्यान के बाद ऊपर बताई गई व्रत कथा को भी जरूर सुनना चाहिए।

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